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हजारों महिलाओं की जिन्दगी संवार रही माया विश्वकर्मा - 7 Feb 2018

हजारों महिलाओं की जिन्दगी संवार रही माया विश्वकर्मा - 7 Feb 2018 भोपाल। मध्य प्रदेश का नरसिंहपुर जिला, जहां का एक गांव बघुवार इन दिनों पूरे देश में चर्चा का विषय बना है, कारण है माया विश्वकर्मा। माया विश्वकर्मा एक ऐसा नाम है जिसने अपनी रंग-बिरंगी जिन्दगी को गांव और क्षेत्र की महिलाओं के हवाले कर दिया है। कभी अमेरिका में कैंसर रिसर्चर रही माया इन दिनों गांव क्षेत्र की महिलाओं को सुरक्षित व स्वावलम्बी बना रही हैं। ‘सुकर्मा फाउण्डेशन’ के नाम से एक संस्थान स्थापित कर व महिलाओं को ट्रेनिंग देकर नेपकीन व पैड का उत्पादन व सस्ते दर पर उसका वितरण उनका लक्ष्य बन गया है। हाथ में पैड लिये गांव की गलियों में महिलाओं को जागृत करती माया विश्वकर्मा की दिनचर्या बन गई है। इतना ही नहीं वह गांव की शिक्षा और स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान दे रही हैं। माया विश्वकर्मा ने उन महिलाओं को जागरूक करने की ठानी है, जिन महिलाओं ने पैड के बारे में सुना ही नहीं है। माया अमेरिका से लौटकर नरसिंहपुर के एक छोटे से गांव में सैनेटरी पैड बनाने की फैक्ट्री डाली है और महिलाओं के माध्यम से सैनेटरी पैड बनाना शुरू भी कर दिया है। मकसद एक ही है पीरियड्स और इससे जुड़ी अन्य समस्याओं के प्रति ग्रामीण महिलाओं को जागरूक करना।

माया ने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सैन फ्रांसिस्को में ब्लड कैंसर पर शोध कार्य किया है। जब वह भारत लौटीं तो उन्होंने आम आदमी पार्टी ज्वाइन कर ली और नरसिंहपुर पहुंचकर काम करना शुरू किया। उन्होंने बघुवार-स्वराज मुमकिन है किताब लिखी। दो साल पहले जब वह गांव की महिलाओं से मिलीं तब उन्हें ये अहसास हुआ कि ग्रामीण महिलाएं उसी परेशानी से गुज़र रही हैं जिससे कभी वो गुज़री थीं। माया ने इसके बारे में पूरी तरह रिसर्च भी करना शुरू कर दिया। अब वह पूरी तरह से इसी काम जुटी हुई हैं। माया के अनुसार “जब मुझे पहली बार पीरियड्स हुए तब मेरी मामी जी ने मुझे बताया कि इस दौरान कपड़े का इस्तेमाल करना है। मैंने उनकी बात को मान लिया और कपड़े का इस्तेमाल करने लगी लेकिन इससे मुझे कई बार इनफेक्शन हुए। ज़िंदगी के न जाने कितने साल मैंने कपड़े का इस्तेमाल करते हुए जब मैं दिल्ली एम्स में न्यूक्लियर मेडिसिन पर रिसर्च कर रही थी तब मुझे पता चला कि इन इनफेक्शन की वजह कपड़े का इस्तेमाल करना था। जब मैं 26 साल की थी तब मैंने पहली बार पीरियड्स में सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल किया। अब वह 36 साल की हो चुकी हैं।’’

वह बताती हैं कि मैंने इतने साल तक माहवारी में कपड़े का इस्तेमाल किया और मुझे अच्छे से पता है कि इसका हमारी सेहत पर कितना बुरा असर पड़ता है। इसीलिए मैंने इस मुहिम की शुरुआत की ताकि मैं गांव की महिलाओं को पीरियड्स के बारे में समझा सकूं, इससे जुड़ी भ्रांतियों को उनके मन से निकाल सकूं और इसे लेकर उनके अंदर जो झिझक है उसे दूर सकूं। माया बताती हैं कि दो साल पहले जब वो अमेरिका से वापस लौटकर भारत आई थीं तब वो पैडमैन के नाम से मशहूर अरुणाचलम से भी मिली थीं लेकिन अरुणाचलम जिस मशीन का इस्तेमाल पैड बनाने के लिए करते हैं उसमें मशीन के साथ हाथों से भी काफी काम करना पड़ता है इसलिए मैंने उनकी तरह मशीन नहीं ली। मुझे ऐसी मशीन की ज़रूरत थी जिसमें हाथ का काम कम हो।

इसके बाद माया ने एक घर में ही सैनिटरी नैपकिन बनाने का काम शुरू कर दिया। इस घर में महिलाएं ही पैड बनाती हैं। यहां रोज़ लगभग 1000 पैड बनाए जाते हैं। ये महिलाएं दो तरह के पैड बनाती हैं, एक लकड़ी का पल्प और रुई का इस्तेमाल करके और दूसरे पॉलीमर शीट से। लेकिन माया अपने काम को विस्तार देना चाहती थीं। वह चाहती थीं कि सिर्फ उनके गांव के आस-पास ही नहीं दूर-दराज़ की ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं और लड़कियों को भी इसका फायदा मिल सके। इसके लिए भारत के साथ-साथ दूसरे देश के कुछ लोगों ने भी माया की मदद की। अब जल्द ही माया की सैनिटरी नैपकिन बनाने वाली फैक्ट्री का उद्घाटन होने वाला है। वह कहती हैं कि ब्राण्डेड सैनिटरी नैपकिन के मुकाबले हम जो पैड बनाते हैं, वे काफी सस्ते हैं। हमारे बनाए हुए सात पैड्स की कीमत सिर्फ 15 से 20 रुपये होती है जबकि दूसरे ब्राण्ड्स के पैड की कीमत काफी ज़्यादा होती है। वह जल्द ही मध्य प्रदेश के आदिवासी जिलों में यात्रा करेंगी। वह कहती हैं, ”हमारा लक्ष्य 21 जिलों के 450 से अधिक स्कूलों में लड़कियों तक पहुंचने और पूरे माहौल को सार्वजनिक आन्दोलन बनाकर उन्हें सुरक्षित माहवारी के महत्व के बारे में शिक्षित करना है।”