प्यारे मित्रों, आज हम २१वीं सदीं में अपना पदार्पण कर चुके है, लेकिन हमारा समाज आज भी १९वीं सदीं में जी रहा है। समाज में इस नयी सदी कि नयी उर्जा का संचार करने के लिए, हमें नये उर्जावान नेतृत्व की आवश्यकता है। आज देश की आबादी का ७० प्रतिशत युवा वर्ग है, ऐसी स्थिती मे युवाओं को समझने के लिए, समाज कि बागडोर युवाओ के हाथो मे होनी चाहिये, चाहे वो देश के किसी भी समाज, घराने या खानदान से हो। समाज की प्रगति को बढावा देने में युवा वर्ग का जोश का उपयोग हो सकता है, लेकिन निगरानी अगर वरिष्ट बुद्धिजीवियो द्वारा की जाए तो एक सुदृढ़ समाज का निर्माण हो सकता है, और ये दोनों के तालमेल से समाज की की गाड़ी समय के साथ साथ हमेशा आगे चलती रहेगी।
यह बुरा मानने कि बात नही है, लेकिन यह एक सच्चाई है कि, आज विभिन्न प्रकार के समाजो में, संस्थाओं में, संगठनों में, सभी का नेतृत्व ५५ से ७५ वर्ष तक के लोग ही कर रहे हैं। उन्हे आज भी ऐसा लगता गई वो समाज को चला सकते हैं, और ये कुछ हद तक सही भी है, लेकिन उम्र के इस पडा़व मे भी उन्हे यह नही लगता है कि, उन्हे अब नेतृत्व कि गद्धी को छोड़ देना चाहिए और युवा पीढी़ को बागडोर सौंप कर उन्हें आगे लाना चाहिए, ताकि वो अपनी उर्जा और जोश का उपयोग समाज की विकास गति को और आगे बढ़ने में कर सकें। समाज के विकास को और आगे बढाने के लिए, समाज के युवा पीढी़ के उच्च शिक्षित व आत्मनिर्भर लोगों को आगे लाने की आवश्यकता है, क्योकि जो स्वयं आत्मनिर्भर होगा, वही एक आत्मनिर्भर समाज का निर्माण कर सकेगा। आत्मनिर्भर व्यक्ति ही समाज का दिशा निर्देशन कर सकता है, क्योंकि वह हर रोज अपने आपको सफल बनाने के प्रयास को बखूबी अंजाम दे सकता है।
हम इतने समझदार, बुद्धिमान और साधन सम्पन्न होने के बावजूद हम अगर समाज को कुछ नही दे सकते तो, हमारा इस समाज में पैदा होना ही व्यर्थ है, क्योंकि हमे यह कभी नही भुलना चाहिये कि, समाज मे पैदा होने से लेकर मरने तक और अन्तिम यात्रा के वक्त हमने समाज से बहुत कुछ पाया, इसलिए हमे यह सोचना चाहिये की समाज को हमने क्या दिया है?
वैसे तो समाज के प्रति नैतिक जिम्मेदारियों का निर्वाहन का दायित्व तो प्रत्येक व्यक्ति का है, और ऐसा मैं मानता हूँ कि सभी को अपनी छमता के अनुरुप नैतिक जिम्मेदारियों का निर्वाहन करना चाहिए। लेकिन २१वीं सदी के इस सबसे व्यस्ततम् समय या युं कहें सबसे भीड-भाड जैसे समय में, जहाँ लोग रोजमर्रा की जिंदगी में अपने आपको ही भूल जाते हैं, समाज की तो बात ही छोडिये। ऐसे व्यस्ततम् समय में हमने अपने आपको रोजमर्रा का जिन्दगी से परे रखकर, लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का प्रयास करके, आज हम इस मन्जिल तक पहुँच पाये हैं। आशा है कि हमारा यह छोटा सा प्रयास समाज को एक शसक्त व तनाव मुक्त समाज बनाने के विकास में सहयोगी होगा।
मैनें विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, इन्टरनेट पे वेवसाइटों और समाज के साथ उठते बैठते यह पाया है कि, विश्वकर्मा समाज से सम्बन्धित अनेकों प्रयास काफी बिखरे से हैं, जबकि वे सभी सराहनीय और अत्यधिक प्रबल समाज को दर्शातें हैं। समाज की इन सब कमीयों को दुर करने के लिये विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, इन्टरनेट पे वेवसाइटों और समाज के द्वारा उपलब्ध जानकारी का नियमित अध्ययन किया जाय, और उसे एक स्थान पर उपलब्ध कराया जाय। इसकें साथ ही विभिन्न पत्र पत्रिकाओं को सारी दुनिया के सामने लाया जा सके ऐसा माध्यम का हमें निर्माण करना होगा। ऐसे ही एक माध्य इन्टरनेट के द्वारा मैनें विश्वकर्मा समाज.काम को बनाया है, जो कि अभी अपने प्रथम चरण में है। आप सभी के सहयोग और मार्गदर्शन के द्वारा यह एक दिन शसक्त व तनाव मुक्त समाज को बनाने में अपना रोल बखूबी निभायेगा।
दशहरे की परम्परा भगवान् श्री राम के द्वारा त्रेतायुग में रावण के वधं से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध अधर्म पर धर्म की जीत का आरम्भ इसी दिन हुआ था। विजयादशमी का पावन पर्व सिर्फ अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई के विजय का प्रतीक ही नही बल्कि यह बुराई में अच्छाई ढूँढने का दिन भी होता है। अतः आज हम सभी इस दिन यह प्रण लेते हैं समाज में बसें सभी तरह बुराईओं में से अच्छाईयों को निकाल निकाल कर नये सुद्दड और सुन्दर समाज का निर्माण करेंगें, और साथ ही हररोज एक व्यकित को विश्वकर्मा समाज की अनमोल मोतीयों का माला में पिरों देंगें।
साहित्यक पगडन्डो पर चलते हुए ही सम्भव है कि मानव को बौद्धिक चेतना की प्राप्ती हो सके। चुनैती भरी सृजनतामय जीवन की अवधि के सौपान से गुजरना एक महान् साहस की बात है। आज विश्व भौतिकवाद के गहन अन्धकार मय दौर से गुजर रहा है। केवल मात्र इस भयानक दौरे से बचने का एक ही विकल्प है विज्ञान के देवता भगवान विश्वकर्मा की शरण में आना, क्योंकि विश्वकर्मा भगवान के अनुकूल भौतिकताप से पीडित मानवता के लिए रामबाण औषध सिद्ध होगी। ऐसी मेरी परिकल्पना ही नही अपितु मेरा दृढ विश्वास भी है। विश्वकर्मा समाज में यह लघु ग्रंथ परन्तु सार रत्नों से भरा समुद्र की तरह है। प्रत्येक शिल्पी, वैज्ञानिक व उद्योगपतियों के लिये आद्यातन विज्ञानमय गीता के समान है।
यहां तक ही नहीं अपितु जो व्यक्ति श्री विश्वकर्मा भगवान को पुर्णरुपेण मानकर चलेंगे तथा उनको वीतराग पुरुष मानकर चिन्तन करेंगे तो निश्चित रुप से वो सत्यपक्ष को प्राप्त करने में सक्षम होंगे ।