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मेघ आये बड़े बन-ठन के, संवर के।
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली
दरवाजे-खिड़कियां खुलने लगीं गली-गली
पाहुन ज्यों आये हों गांव में शहर के।
पेड़ झुक झांकने लगे गरदन उचकाये
आंधी चली, धूल भागी घांघरा उठाये
बांकी चितवन उठा नदी ठिठकी, घूंघट सरके।
बूढ़े पीपल ने आगे बढ़ कर जुहार की
‘बरस-बाद सुधि लीन्ही’
बोली अकुलायी लता ओट हो किवार की
हरषाया ताल लाया पानी परात भर के।
क्षितिज अटारी गदरायी दामिनि दमकी
‘क्षमा करो गांठ खुल गयी भरम की’
बांध टूटा झर-झर मिलन अश्रु ढरके
मेघ आये बड़े बन-ठन के संवर के।
Anil Vishwakarma
Very nice poem :)
6/14/2011 10:14:48 PM
Pawan Vishwakarma
This is one of good poem for rain.
7/18/2011 10:44:36 PM