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Mr. Vinod Kumar Sharma Khudaniya
Mr. Vinod Kumar Sharma Khudaniya khudaniya.vinod@gmail.com 9785022587
Subject : हठ योग आसन
हठ योग 1. भगवान शिव जी को प्रणाम है, जिन्होंने सबसे पहले हठ योग का ज्ञान इस संसार को दिया । यह ज्ञान एक सीढी के समान है, जो एक साधक को राज योग की ऊँचाई तक पहुँचा देता है । 2. योगी स्वात्माराम अपने गुरु श्रीनाथ को प्रणाम कर राज योग की प्राप्ति हेतु हठ योग के बारे में बताते हैं । 3. राज योग के बारे में बहुत से मत भेद होने के कारण जो अज्ञान रूपी अन्धकार फैला हुआ है, जिसके कारण समान्य जान राज योग के सही सही जान नहीं पा रहे हैं । उन पर कृपा कर स्वात्माराम जी हठ योग प्रदीपिका रूपी रौशनी से इस अन्धकार को मिटाते हैं । 4. मत्स्येन्द्र, गोरक्ष आदि सब हठ योग के ज्ञाता थे, और उन की कृपा से स्वात्माराम जी ने भी उनसे इसे सीखा । 5. पूर्व काम में ये सिद्ध महात्मा हुये हैं – श्री आदिनाथ जी, मत्स्येन्द्र, नाथ, साबर, अनन्द, भैरव, चौरन्गी, मिन नाथ, गोरक्ष नाथ, विरूपाक्ष, बीलेसय, मन्थन, भैरव, सिद्धि बुद्धै कान्ठादि, करन्तक, सुरानन्द, सिद्धिपाद, चरपति, कानेरि, पिज्यपाद, नात्यनाथ, निरन्जन, कपालि, विन्दुनाथ, काक चन्डीश्वर, अल्लामा, प्रभुदेव, घोदा, चोलि, तितिनि, भानुकि आदि । 6. ये महासिद्ध महर्षि, मृत्यु को जीत कर अमृत्व को प्राप्त हुये हैं । 7. जैसे घर मनुष्य की धूप से रक्षा करता है, उसी प्रकार हठ योग एक योगी की तीनों प्रकार के तपों की गरमी से रक्षा करता है । जो सदा योग में लगें हैं, यह हठ योग उन के लिये वैसे ही सहारा देता है जैसे सागर मन्थन में भगवान नें कछुये के रूप से पर्वत को सहारा दिया था । 8. योगी को हठ योग के ज्ञान को छुपा कर रखना चाहिये, क्योंकि यह गुप्त होने से अधिक सिद्ध होता है और दिखाने से इस की हानि होती है । 9. योगी को हठ योग एक शान्त कमरे में, जहां पत्थर, अग्नि, जल आदि से कोई हलचल न हो, वहां स्थित हो कर करना चाहिये और ऐसी जगह रहना चाहिये जहां अच्छे लोग रहते हैं, तथा खाने की बहुलता हो, आसानी से प्राप्त हो । 10. कमरे में छोटा दरवाजा हो, कोई सुराख आदि न हों । न वह ज्यादा उँचा हो, न बहुत नीचा, गोबर से अच्छी तरह लिपा हो, और गन्दगी, कीडों आदि से मुक्त हो । उस के बाहर चबूतरा हो और आँगन आदि हो । हठ योग करने के स्थान में ऐसी खूबीयाँ हों तो अच्छा है, यह इस योग में सिद्ध महर्षियों ने कहा है । 11. इस स्थान में बैठ कर, और सभी प्रकार के मानसिक उद्वेगों से मुक्त होकर साधक को योग साधना करनी चाहिये । 12. योग इन छे कारणों से नष्ट हो जाता है – बहुत खाना, बहुत परिश्रम, बहुत बोलना, गलत नियमों का पालन जैसे बहुत सुबह ठंडे पानी से नहाना या देर रात को खाना या केवल फल खाना आदि, मनुष्यों का अत्याधिक संग, औऱ छटा (योग में) अस्थिरता । 13. इन छे से सफलता शिघ्र ही प्राप्त होती है – हिम्मत, नीडरता, लगे रहना, ध्यान देना, विश्वास, और संगती से दूर रहना । 14. इन दस आचरणों का पालन करना चाहिये – अहिंसा (किसी भी प्राणी की हिंसा न करना), सत्य बोलना, चोरी न करना, संयम, क्षमा, सहनशीलता, करुणा, अभिमान हीनता – दैन्य भाव, कम खाना और सफाई । 15. योग के ज्ञाता जन यह दस नियम बताते हैं – तप, धैर्य रखना, भगवान में विश्वास, दान देना, भगवान का ध्यान करना, धर्म संवाद सुनना (पढना), शर्म, बुद्धि का प्रयोग, तपस्य करना और यज्ञ करना । Asanas 1. आसन हठ योग की सबसे पहली शाखा है, इसलिये सबसे पहले उस का वर्णन करते हैं । इसका अभ्यास स्थिर काया, निरोगता और शरीर का हलकापन पाने के लिये करना चाहिये । 2. मैं कुछ आसनों का वर्णन करता हूँ जिन्हें वौशिष्ठ जैसे मुनियों और मत्स्येन्द्र जैसे योगियों ने अपनाया है । Swastika-āsana 1. अपने दोनो हाथों को अपने पट्टों के नीचे रख कर, अपने शरीर को सीधा रख, जब मनुष्य शान्ती से बैठता है तो उसे स्वतिक कहते हैं । Gomukha-āsana 1. जब अपने दायने ankle(ऎडी) को अपने बायें ओर और अपने बायें ankle (ऎडी) को अपने दायें ओर रखा जाये, जो गायें के मूँह जैसा दिखता है, उसे गोमुख आसन कहते हैं । Virāsana 1. एक पैर को दूसरे पट्ट पर रखा जाये और दूसरे पैर को इस पट्ट पर रखा जाये, इसे वीरासन कहते हैं । Kurmāsana 1. अपनी दायें ankle को anus के बायें ओर और बायें ankle को anus के दायें ओर रखा जाये, उस आसन को योगी कुर्मासन कहते हैं । Kukkuta āsana 1. पदमासन में बैठ कर, फिर हाथों के पट्टों के नीचे रख कर, जब योगी अपने आप को जमीन से उठाता है, हाथों के तलवों को धरती पर टिकाये हुये, तो उसे कुक्कुट आसन कहते हैं । Utāna Kurma-āsana 1. कुक्कुट आसन में बैठ कर, अपनी गरदन या सिर को पीछे से पकड कर, अगर जमीन पर पीठ लगा कर लेटा जाये, तो उसे उतान कुर्मासन कहते हैं, क्योंकि यह दिखने में कछुये जैसा लगता है । Dhanura āsana 1. दोनो हाथों से अपने पैरों के अगले भाग (उंगलीयों) को पकड कर, उन्हें (पैरों को) अपने कानो तक ले जाना, जैसे कोई धनुष खींच रहें हों, उसे धनुर आसन कहा जाता है । Matsya-āsana 1. अपने पैर को अपने पट्ट (thigh) पर रख कर, अपने हाथ को पीठ की तरफ से ले जा कर उसे पकडना – जैसे दायने पैर को बायें पट्ट पर रख कर, अपने दायने हाथ को पीठ की तरफ से ले जा कर अपने दायने पैर को पकडना, और वैसे ही दूसरे पैर और हाथ से करना – इस आसन को मत्स्य आसन कहते हैं, और इसका वर्णन श्री मत्स्यानाथ जी ने किया था । इस से भूख बढती है, और यह बहुत सी भयानक बिमारियों से रक्षा में सहायक सिद्ध होता है । इस के अभ्यास से कुण्डली जागती है और यह मनुष्य के चन्द्रबिंदू से अमृत छटना रोकता है (इस विष्य में बाद में और बताया गया है) । Paschima Tāna 1. पैरों को जमीन पर सीधा कर के (साथ साथ लंबे रख करे), जब दोनो हाथों से पैरों की उँगलीयाँ पकडी जायें और सिर को पट्टों पर रखा जाये, तो उसे पश्चिम तन आसन कहते हैं । इस आसन से शरीर के अन्दर की हवा आगे से शरीर के पीछे के भाग की तरफ जाती है । इस से gastric fire को बढावा मिलता है, मोटापा कम होता है और मनुष्य की सभी बिमारियां ठीक होती हैं । (यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण आसन है) Mayura-āsana 1. हाथों के तलवों को जमीन पर रखें और अपनी elbows को साथ साथ लायें । फिर पेट की धुन्नि (navel) को अपनी elbows के ऊपर रखें और इस प्रकार अपने भार को हाथों (elbows) पर टिकाते हुये, शरीर को डंडे के समान सीधा करें । इसे म्यूर आसन कहते हैं । 2. इस आसन से जल्द ही सभी बिमारियां नष्ट हो जाती हैं, पेट के रोग मिट जाते हैं, और बलगम, bile, हवा आदि के विकारों को दूर करता है, भूख बढाता है और खतरनाख जहर का अन्त करता है । Sava-âsana 1. धरती पर मृत के समान लंबा लेटना, इसे शव आसन कहा जाता है । इस से थकावट दूर होती है और मन को आराम मिलता है । 2. इस प्रकार भगवान शिवजी नें 84 मुख्य आसन बताये हैं । लेकिन उन में से पहले चार सबसे जरूरी हैं । यहां मैं उन का वर्णन करता हूँ । 3. ये चार हैं – सिद्धासन, पद्मासन, सिंहासन और भद्रासन । इन में से भी सिद्धासन बहुत सुखदायी है – इसका सदा अभ्यास करना चाहिये । The Siddhâsana 1. अपने दायें पैर की एडी को अपने perineum (लिंग के नीचे की हड्डी) के साथ अच्छे से लगायें, और अपने दूसरी ऐडी को अपने लिंग के उपर रखें । अपनी ठोडी (chin) को अपनी छाती से लगायें और शान्ति से बैठें । अपनी इन्द्रियों को संयम कर, अपने माथे के बिच (eyebrows) की तरफ एक टक देखें । इसे सिद्धासन कहा जाता है – जो मुक्ति का द्वार खोलता है । 2. इसे अपने दायने पैर को अपने लिंग (penis) के उपर और बायें को उसके साथ रख कर भी किया जा सकता है । 3. कुछ लोग इसे सिद्धासन कहते हैं, कुछ वज्रासन भी कहते हैं । दूसरे कुछ लोग इसे मुक्तासन या गुप्तासन भी कहते हैं । 4. जैसे कम खाना यमों में पहला यम है, और जैसे अहिंसा (किसी भी प्राणी की हिंसा न करना) पहला नियम है, उसी प्रकार ऋषियों ने सिद्धासन को सभी आसनों में प्रमुख बताया है । 5. 84 आसनों में सिद्धासन का सदा अभ्यास करना चाहिये क्योंकि यह 72000 नाडियों को शुद्ध करता है । 6. स्वयं पर ध्यान करते हुये, कम खाते हुये, और सिद्धासन का बारह वर्ष तक अभ्यास कर योगी सफलता प्राप्त कर लेता है । 7. जब सिद्धासन में सफलता प्राप्त हो चुकी हो, और केवल-कुम्भक द्वारा प्राण वायु शान्त और नियमित हो चुकी हो, तो दूसरे किसी आसन की कोई आवश्यकता नहीं है । 8. केवल सिद्धासन में ही अच्छी तरह स्थिर हो जाने से मनुष्य को उन्मनी प्राप्त हो जाती है और तीनो बंध भी स्वयं ही पूर्ण हो जाते हैं । 9. सिद्धासन जैसा कोई आसन नहीं है, और ‘केवल’ जैसा कोई कुम्भक नहीं है । केचरी जैसी कोई मुद्रा नहीं है, और नाद (अनहत नाद) जैसी कोई लय नहीं है । Padmâsana 1. अपने दायें पैर को अपने बायें पट्ट पर रख कर, और बायें पैर को अपने दायें पट्ट पर रख कर, अपने हाथों को पीछे से ले जाकर पैरों की उंगलीयों को पकड कर बैठना । फिर अपनी ठोडी को छाती से लगाना और अपने नाक के अगले भाग की तरफ देखना । इसे पद्मासन कहा जाता है, यह साधक की बिमारियों का नाशक है । 2. अपने पैरों को पट्टों पर रख कर, पैरों के तलवे ऊपर की ओर, और हाथों को पट्टों पर रख कर, हाथों के तलवो भी ऊपर की ओर । 3. नाक के अगले भाग की तरफ देखते हुये, अपनी जीभ को ऊपर के दाँतों की जड पर टीका कर, और ठोडी को छाती के साथ लगाते हुये, धीरे से हवा को ऊपर की ओर खींच कर । 4. इसे पद्मासन कहा जाता है, यह सभी बिमारियों का नाशक है । यह सब के लिये प्राप्त करना कठिन है, लेकिन समझदार लोग इसे सीख सकते हैं । 5. दोनो हाथों को अपनी गोदी में साथ साथ रख कर, पद्मासन करते हुये, अपनी ठोडी को छाती से लगा कर, और भगवान पर ध्यान करते, अपनी अपान वायु को ऊपर का तरफ खीचते, और फिर साँस लेने के बाद नीचे को धकेलते – इस प्रकार प्राण और अपान को पेट में मिलाते, योगी परम बुद्धि को प्राप्त करता है शक्ति के जागने के कारण । 6. जो योगी, इस प्रकार पद्मासन में बैठे, अपनी साँस पर काबू पा लेता है, वह बंधन मुक्त है, इस में कोई शक नहीं है । The Simhâsana 1. दोनो ऐडीयों को अपने लिंग के नीचे वाली हड्डी से लगा कर । 2. अपने हाथों को अपने पट्टों पर रख कर, अपने मूँह को खुला रख कर, और अपने मन को संयमित कर, नाक के आगे वाले भाग की तरफ देखते हुये । 3. यह सिंहासन है, जिसे महान योगी पवित्र मानते हैं । यह आसन तीन बंधों की पूर्ति में सहायक होता है । The Bhandrâsana 1. दोनो ऐडीयों को अपने लिंग के नीचे वाली हड्डि से लगा कर (keeping the left heel on the left side and the right one on the right side), पैरों को हाथों से पकड कर एक दूसरे से अच्छे से जोड कर बैठना । इसे भद्रासन कहा जाता है । इस से भी सभी बिमारियों का अन्त होता है । 2. योग ज्ञाता इसे गोरक्षासन कहते हैं । इस आसन में बैठने से थकावट दूर होती है । 3. यह आसनों का वर्णन था । नाडियों को मुद्राओं, आसनों, कुम्भक आदि द्वारा शुद्ध करना चाहिये । 4. नाद पर बारीकी से ध्यान देने से, ब्रह्मचारी, कम खाता और अपनी इन्द्रियों को नियमित करता, योग का पालन करता हुआ सफलता को एक ही साल में प्राप्त कर लेता है – इस में कोई शक नहीं । 5. सही खाना वह है, जिस में अच्छे से पके, घी और शक्कर वाले खाने से, भगवान शिव को अर्पित करने के पश्चात खाकर ¾ भूख ही मिटाई जाये । Foods injurious to a Yogi or Yogini 1. कडवी, खट्टी, नमकीन, सडी, तेल से भरी, दारू युक्त, मछली, मास, दहियां, पयाज, लसन आदि नहीं खाना चाहिये । 2. फिर से गरम किया खाना, सूखा, बहुत ज्यादा नमकीन, खट्टा, या ऐसी सबजियाँ जो जलन करती हैं नहीं खानी चाहिये । अग्नि, औरतें, सफर आदि से टलना चाहिये । 3. जैसा की गोरक्ष नें कहा है, योगी को बुरे लोगों के संग से, आग, औरतें, सफर, बहुत सुबह नहाना, निरन्न रहना और अत्याधिक शारीरिक परिश्रम से टलना चाहिये । 4. कनक, चावल, मक्कि, दूध, घी, शक्कर, मक्खन, शहद, अदरक, परवल, पाँच सबजियाँ, मूँग दाल, शुद्ध पानी – यह सब योगाभ्यास करने वाले के लिये बहुत लाभ दायक हैं । 5. योगी को ताकत देने वाले पदार्थ खाने चाहिये, अच्छे से मीठे किये, घी डाले, दूध, मक्खन आदि जिन से शरीर की शक्ति बढे । 6. चाहे कोई जवान हो, बूढा या बहुत बूढा हो, बिमार या पतला हो, जो कोई भी आलस त्याग कर योग का अभ्यास करता है उसे सफलता मिलती है । 7. जो अभ्यास में लगा है, उसे सफलता प्राप्त होती है । भला अभ्यास किया बिना की सफलता कैसे प्राप्त हो सकती है, क्योंकि केवल योग की किताबें पढने से कभी सफलता नहीं मिल सकती । 8. योग में सफलता कोई वेश धारण करके नहीं मिल सकती । न ही कहानियाँ बता कर इसे प्राप्त किया जा सकता है । केवल अभ्यास ही इसमें सफलता का साधन है । यह सच है, इसमें कोई शक नहीं है । 9. आसन, कुम्भक और अन्य दैविक साधन, यह सभी का हठ योग में अभ्यास करना चाहिये जब तक राज योग का फल न प्राप्त हो जाये । यहीं पहले अध्याय का अन्त होता है जो मुख्य प्रकार से आसनों के ऊपर है । On Pranayama 1. आसन के में स्थिरता आ जाने पर, योगी को नियमित कम खाते हुये, प्राणायम का अभ्यास करना चाहिये। 2. साँस के विचलित हो जाने पर मन भी आशान्त हो जाता है। साँस को नियमित कर, योगी मन की स्थिरता प्राप्त करता है। 3. जब तक साँस शरीर में रहती है, उसे जीवित कहा जाता है। साँस का इस शरीर से निकल जाना ही मृत्यु होता है। इसलिये साँस को संयम करना जरूरी है। 4. साँस अर्थात प्राण बीच वाली नाडी में नहीं जा पाते, क्योंकि वह नाडी खुली नहीं है। तो सफलता कैसे प्राप्त होगी और समाधि का आवस्था कैसे मिल पायेगी। 5. जब सभी नाडियां जो अशुद्धता से भरी पडी हैं, शुद्ध हो जाती हैं, तो योगी प्राण वायु को वश में कर लेता है। 6. इस लिये सात्विक बुद्धि से हर रोज प्राणायम करना चाहिये ताकि नाडियां शुद्ध हो पायें। Methods of performing Pranayama 1. पद्मासन में बैठ कर योगी को अपनी दायीं नासिका से हवा भरनी चाहिये, और उसे अपने क्षमता के अनुसार अन्दर रोक कर, फिर धीरे से अपनी बायीं नासिका से छोडना चाहिये। 2. फिर उलटा, बायें से अन्दर और दायें से बाहर – उसी प्रकार कुम्बक करना चाहिये। 3. इस प्रकार एक से अन्दर लेकर, और अन्दर क्षमता अनुसार रोक कर, दूसरी नासिका से बाहर निकालना धीरे धीरे, जबर दस्ति नहीं। 4. इस प्रकार, एक दूसरी नासिका द्वारा अभ्यास करते हुये, सभी की सभी 72000 नाडियां 3 महिनों में शुद्ध हो जाती हैं। 5. इन कुम्भक को धीरे धीरे बढाते हुये दिन रात में चार बार करना चाहिये, जब तक एक बार की संख्या 80 न हो जाये और सारे दिन की संख्या 320 न हो जाये। 6. शुरु में पसीना आता है, फिर बीच की stage में कम्पकपी होती है, और अन्त की स्थिति में स्थिरता प्राप्त हो जाती है। तब साँस को स्थिर, और हलचल रहित कर देना चाहिये। 7. इस अभ्यास के परिश्रम से जो पसीना आये उसे अपने शरीर में ही मल लेना चाहिये क्योंकि एसा करने से शरीर मजबूत होता है। 8. पहले के अभ्यास में दूध और घी युक्त आहार भरपूर होता है। जब साधना अच्छे से स्थिर हो जाये तो ऐसी कोई पाबंधी नहीं है। 9. जैसे शेर, हाथी, चिते धिरे धिरे ही अपने वश में किये जाते हैं, उसी प्रकार साँस भी धीरे धीरे करते अपने वश में किया जाता है – इस में जल्दबाजी करना खतरनाख है। 10. जब प्राणायम को अच्छे से किया जाता है तो वह सभी बिमारियों को मिटा देता है, लेकिन गलत अभ्यास बिमारिया उत्पन्न करता है। 11. हिचकी आना, दम घुटना, खाँसी आना, सर या कानों या आँखों में दर्द आदि बिमारियाँ प्राण वायु के हिलने विचलित होने से ही उत्पन्न होती हैं। 12. वायु को सही ढंग से ही निकालना चाहिये, और कोशलता से सही ढंग से भरना चाहिये, और जब उसे सही प्रकार से अन्दर रोका जाता है तो सफलता प्राप्त होती है। 13. जब नाडियाँ शुद्ध हो जाती हैं, और बाहर भी उसके चिन्ह दिखने लगें, जैसे की पतला शरीर, चमकता रंग आदि तो सफलता प्राप्त हो रही है इस पर विश्वास करना चाहिये। 14. अशुद्धता के मिट जाने पर, वायु को अपनी मरजी के अनुसार अन्दर रोका जा सकता है, भूख बढती है, दैविक ध्वनि जागति है और शरीर निरोग हो जाता है। 15. अगर शरीर में ज्यादा मोटापा यां बलगम आदि हैं, तो छे प्रकार की क्रियायें करनी चाहिये पहले। लेकिन जिन्हें यह सब नहीं हैं, उन्हें यह नहीं करनी चाहिये। 16. यह छ क्रियायें हैं धौती, बस्ती, तराटक, नौती, कपाल भाती। 17. यह छे क्रियायें जिस से शरीर साफ होता है, गुप्त रखनी चाहिये। इन से बहुत अच्छे फायदे होते हैं और इन्हें उत्तम योगी गण बहुत ही इमानदारी से करते हैं। The Dhauti 1. कपडे की पट्टी, 3 इन्च चौडी और 15 मीटर लम्बी, कोसे पानी से नमाई हुई, उसे धीरे धीरे निगला जाता है (एक सिरा बाहर रहता है) और फिर बाहर निकाला जाता है। इसे धौती कर्म कहते हैं। 2. इस में कोई शक नहीं कि खाँसी, दम घुटना, आदि 20 प्रकार की बिमारियाँ धौती से ठीक हो जाती हैं। The Basti 1. पेट तक पानी में बैठ कर, एक 6 इन्च लम्बी, आधा इन्च चौडी खोखली पाईप को, anus में डाला जाता है और फिर (anus को) सकोडा और बाहर का ओर निकाला जाता है। इस धोने की क्रिया को बस्ति कर्म कहते हैं। 2. इसे करने से कई बिमारियां जो वायु, पित और कफ आदि के विकारों से उत्पन्न होती हैं, ठीक हो जाती हैं। 3. पानी में बस्ति करने से, शरीर के धातु, इन्द्रियां, मन शान्त रहते हैं। इस से शरीर में चमक आने लगती है और भूख बढती हैं, और सभी विकार आदि मिट जाते हैं। The Neti 1. धागें से बनी एक रस्सि, 6 इन्च लम्बी, नाक द्वारा डाल कर, मूँह से निकाली जाती है। इसे योग ज्ञाता नेती क्रिया कहते हैं। 2. इससे दिमाग शुद्ध होता है और दैविक दृष्टि मिलती है। इस से मूँह औऱ खोपडी के हिस्से के रोग दूर होते हैं। The Tratika 1. शान्त हो कर, एक ही निशान पर एकटक देखते रहना, जब तक आँखों में पानी न आ जाये। इसे आचार्य गण तराटक कहते हैं। 2. इससे आँखों के रोग दूर होते हैं, और आलस मिटता है। इसे बहुत गुप्त रखना चाहिये जैसे गहनों की डब्बा। The Nauli 1. अपने पैरों के बल, ऐडीयों को उठा कर बैठ कर, हाथों के तलों को धरती पर रखे हुये। इस प्रकार झुके हुये, अपने पेट को जबरदस्ती दायें से बायें तक लेजाना, जैसे उल्टी कर रहे हों। इसे नौली कर्म कहा जाता है। 2. इस से dyspepsia ठीक होता है, भूख लगती है, हाजमा ठीक होता है। यह लक्ष्मी की ही तरह सभी प्रसन्नता देता है और सभी विकारों को सुखा देता है। हठ योग में यह बहुत ही उत्तम क्रिया है। The Kapala Bhati 1. जब साँस लेना और निकालना बहुत जल्दि जल्दि किये जायें, तो वह बलगम के सभी विकारों को मिटा देता है। इसे कपाल भाती कहा जाता है। 2. इस प्रकार जब इन छे क्रियाओं द्वारा शरीर को बलगम आदि से उत्पन्न मोटापे आदि से मुक्त करने के बाद प्राणायम किया जाता है तो आसानी से सफलता प्राप्त होती है। 3. कुछ आचार्य प्राणायम के अतिरिक्त और किसी क्रिया नहीं बताते क्योंकि वे मानते हैं कि सभी अशुद्धियां प्राणायम द्वारा ही सूख जाती हैं। Gija Karani 1. अपान वायु को गले तक लाकर, उल्टि की जा सकती है। धीरे धीरे इस से नाडियों का ज्ञान होता है। इसे गज करनी कहा जाता है। 2. ब्रह्मा आदि देव सदा प्राणायाम में लगे हैं, और इसके द्वारा मृत्यु के भय से मुक्त होते हैं। इसलिये, सदा प्राणायम का अभ्यास करना चाहिये। 3. जब तक शरीर में साँस को रोका हुआ है, मन हलचल रहित है, और दृष्टि आँखों के बाच में स्थित है – तब तक मृत्यु का कोई भय नहीं है। 4. जब सभी नाडियां प्राण को भली भाँति काबू में कर लेने से शुद्ध हो जाती हैं, तो प्राण वायु सुसुम्ना नाडी के द्वार को आसानी से भेद कर उस में प्रवेश कर जाता है। Manomani 1. जब वायु बाच वाली नाडी में आसानी से चलती है, तो मन स्थिर हो जाता है। इस स्थिति को मनोमनि कहते हैं जो तब प्राप्त होती है जब मन शान्त हो जाता है। 2. इसे प्राप्त करने के लिये विभिन्न कुम्भक किये जाते हैं उनको द्वारा जो योग में प्रवीण हैं, क्योंकि कुम्भक के अभ्यास से ही विशिष्ट सफलता प्राप्त होती है। विभिन्न प्रकार के कुम्भक 1. कुम्भक आठ प्रकार के होते हैं - सूर्य भेदन, उजई, सीतकरी, सितली, भस्त्रिका, भ्रमरि, मूर्च्छा और प्लविनि। 2. पूरक के अन्त में जल्नधर बन्ध करना चाहिये, और कुम्भक के अन्त में और रेचक के शुरु में उदियान बन्ध नहीं करना चाहिये। (पूरक कहते हैं बाहर से भीतर हवा भरने को - अन्दर साँस लेने को)। 3. कुम्भक कहते हैं साँस को अन्दर रोक कर रखने को (हवा को अन्दर बंद कर के रखना)। रेचक साँस को बाहर छोडने को कहते हैं। पूरक, कुम्भक और रेचक की जानकारी सही जगह दी जायेगी और इसे ध्यान से समझना और लागू करना चाहिये। अपने नीचे के भाग को ऊपर की ओर खींच कर (मूल बन्ध) और अपनी गर्दन को अन्दर की ओर खींच कर (ठोडी को छाती से लगा कर - जल्नधर बन्ध) और अपने पेट को अन्दर की ओर खींच कर - यह करने पर प्राण ब्रह्म नाडी (सुशुम्न) की तरफ बढता है (उसमें प्रवेश करने की चेष्टा करता है)। (बीच वाली नाडी को योगी जन सुशुम्न कहते हैं। उस के साथ में दो अन्य जो नाडियां होती हैं जो रीड की हडडी के साथ चलती हैं उन्हें ईद और पिंग नाडीयाँ कहा जाता है।) 4. अपान वायु को ऊपर को खींच कर और प्राण वायु को गर्दन में से होती नीचे की ओर धकेल कर योगी जरा से मुक्त हो ऐसे यौवन अवस्था को प्राप्त कर लेता है मानो सोलंह साल का हो। (प्राण का स्थान हृदय है औऱ अपान का स्थान anus है। समान का स्थान पेट है, उदान का गला स्थान है और व्यान का स्थान सारा शरीर है - यह पाँच पॅकार की वायु हैं जो मनुष्य को जीवित रखती हैं।) सूर्य भेदन 1. किसी भी आरामदायक आसन को ग्रहण कर के बैठें। फिर वायु को धीरे धीरे right नासिका से अन्दर लें। 2. फिर उस वायु को अन्दर रोक कर रखें, ताकी वह नाखूनों से ले कर बालें तक सारे शरीर को भर दे और फिर धीरे धीरे उसे दूसरी (left) नासिका से बाहर निकालें। (इसे एक के बाद एक करना है। जिस नासिका से अन्दर लें, दूसरी से निकालें और फिर उस दूसरी से अन्दर लें औऱ पहली वाली से निकालें।) 3. इस उत्तम सूर्य भेदन से माथा साफ होता है, वत के रोग दूर होते हैं, कीडे खत्म होते हैं इसे बार बार करना चाहिये। 4. मैं इस योग अभ्यास का वर्णन करता हूँ ताकी योगी जन सफल हों। बुद्धिमान मनुष्य को सुबह जल्दि उठना चाहिये (चार बजे सुबह) 5. फिर अपने गुरु को अपने सिर से नमस्कार कर, और अपने देव को अपने मन में याद कर, साफ सफाई आदि क्रम से मुक्त हो, अपना मूँह साफ कर, फिर अपने शरीर पर भस्म लगानी चाहिये। 6. एक साफ स्थान पर, साफ कमरा या फिर मनोहर जमीन पर उसे नरम आसन बिछा कर उस पर बैठना चाहिये और अपने मन में अपने गुरु और अपने देव अथवा देवी को याद करना चाहिये। 7. अपने आसन स्थान की प्रशसा कर, यह प्रण लेना चाहिये की भगवान की कृपा से आज मैं समाधि प्राप्त करने के लिये प्राणायम करूँगा। उसे भगवान शिवजी को प्रणाम करना चाहिये ताकी उसे अपने आसन और योग में सफलता प्राप्त हो। 8. नागों के भगवान, हजारों सिरों वाले भगवान शिवजी को प्रणाम है, जो अद्भुत मणियों से सुशोभित हैं और जिन्होंने इस संपूर्ण संसार को संभाला हुआ है, उसका पालन करते हैं, अनन्त हैं। इस प्रकार भगवान शिव जी की पूजा कर उसे आसन का अभ्यास करना आरम्भ करना चाहिये, और जब थकावट हो जाये तो शव आसन का अभ्यास करना चाहिये। अगर थकावट न हो तो शव आसन न करे। 9. कुम्भक शुरु करने से पहले विपरीत करनी मुद्रा करनी चाहिये, ताकी वह जल्नधर बन्ध को आसानी से कर पाये। 10. थोडा से जल पी कर उसे प्राणायम का अभ्यास आरम्भ करना चाहिये, योगिन्दों को नमस्कार कर के, जैसा की भगवान शिव जी नें कुर्म पुराण में बताया है। 11. जैसे भगवान शिव नें कहा है की योगिन्द्रों के नमस्कार कर के, और उन के शिष्यों को, औऱ गुरु विनायक को नमस्कार कर के, फिर योगी को शान्त मन से मुझ में एक हो जाना चाहिये। 12. अभ्यास करते समय असे सिद्धासन में बैठना चाहिये, और फिर बन्ध और कुम्भक करना आरम्भ करना चाहिये। पहले दिन उसे 10 कुम्भकों से शुरु करना चाहिये और हर रोज 6 बढा देने चाहिये। 13. शान्त मन से 80 कुम्भक एक बार में करने चाहिये - पहले चन्द्र नासिका (left nostril) से शुरु करते हुये और उसके बाद सूर्य (right) नासिका से। 14. बुद्धिमान लोगों ने इसे अनुलोम विलोम कहा है। इस सूर्य भेदन का अभ्यास करते हुये, साथ में बन्धों के, बुद्धिमान मनुष्य को उज्जई और फिर सीतकरी सीतली और भस्त्रिका करने चाहिये, दूसरे प्रकार के कुम्भक चाहे वह न करे। 15. उसे मुद्राओं का ठीक से अभ्यास करना चाहिये जैसे उसके गुरु ने बताया हो। फिर पद्मासन में बैठ कर उसे अनहत नाद को ध्यान से सुनना चाहिये। 16. जो भी वह कर रहा है, उस के फल को उसे भक्तिपूर्वक भगवान पर छोड देना चाहिये। इस अभ्यास के समाप्त होने पर उसे गरम पानी से स्नान करना चाहिये। 17. इस स्नान के बाद दिन के कार्य कुछ देर के लिये रुक जाने चाहिये। दोपहर को भी अभ्यास के बार थोडा आराम करना चाहिये और फिर खाना खाना चाहिये। 18. योगीजन को सदा स्वस्थ भोजन करना चाहिये, कभी अस्वस्थ करने वाला नहीं। रात के खाने के बार उसे Ilachi or lavanga लेना चाहिये। 19. कईयों को कपूर और पान का पत्ता पसंद है। योगीयों को प्राणायम करने के पश्चात पान का पत्ता बिना किसी औऱ चीजों के (जैसे कथा आदि) अच्छा है। 20. खाना खाने के बार उसे अध्यात्मिक पुसतकें पढनी चाहिये, या पुराण सुनना चाहिये या भगवान का नाम लेना चाहिये। 21. शाम में उसे पहले की ही भाँती अभ्यास करना चाहिये। सूर्य के अस्त होने के एक घंटा पहले अभ्यास शुरु करना चाहिये। 22. फिर शाम की संध्या उसे अभ्यास करने के पश्चात करनी चाहिये। अर्ध रात्रि में सदा हठ योग का अभ्यास करना चाहिये। 23. विपरीत करनी शाम में और रात में करनी अच्छी है लेकिन खाने के बिल्कुल बाद नहीं क्योंकि वरना उस से लाभ नहीं होता। उज्जयी 1. गले की नाडी का मूँह बंद कर के (ठोडी को पीछे की ओर लगा कर), वायु को इस प्रकार से अन्दर लेना चाहिये जिस से वह गले को छूती हुई, आवाज करती छाती तक पहुँचे। 2. उसे पहले की तरह अन्दर रोक कर रखना चाहिये, और फिर left nostril से बाहर निकालना चाहिये। इस से गले की बलगम कम होती है और भूख बढती है। 3. इस से नाडीयों के रोग खत्म होते हैं, और dropsy औऱ धातु के रोग मिटते हैं। उज्जयी जीवन की हर अवस्था में करना चाहिये, चलते हुये भी और बैठे हुये भी। सीतकरी 1. सीतकरी मूँह द्वारा साँस अन्दर लेने से की जाती है, जीहवा (tounge) को होठों (lips) के बीच में रख कर। इस प्रकार अन्दर ली गई वायु को फिर मूँह से बाहर नहीं निकालना चाहिये। इस अभ्यास से, मनुष्य कामदेक के समान हो जाता है। 2. वह योगीयों द्वारा सम्मानित होता है और सृष्टि के चक्र से मुक्त होता है। उस योगी को न भूख, न प्यास और न ही निद्रा और आलस सताते हैं। 3. उसके शरीर का सत्त्व सभी प्रकार की हलचल से मुक्त हो जाता है। सत्य में वह इस संसार में जितने भी योगी हैं उन में अग्रणीय हो जाता है। सीतली 1. जैसे सीतकरी में जीहवा मूँह से जरा बाहर की ओर निकाली जाती है, उसी प्रकार इस में भी किया जाता है। वायु को फिर मूँह से अन्दर ले कर, अन्दर रोक कर और फिर नासिकाओं से निकाला जाता है। 2. इस सीतली कुम्भक से colic, (enlarged) spleen, fever, disorders of bile, hunger, thirst आदि का अन्त होता है और यह जहर को काटता है। भस्त्रिका 1. पद्म आसन कहते हैं अपने पैरों को cross कर के अपने thighs पर रखना। इस से सभी पापों का अन्त होता है। 2. पद्मासन में बैठ कर और अपने शरीर को सीधा रख कर, मूँह को ध्यान से बंद कर, वायु को नाक से निकालें। 3. वायु को फिर अपन हृदय कमल (छाती) में भरे, वायु को शक्ति से अन्दर खींचते हुये, आवाज करते और गले, छाती और सिर को छूते। 4. फिर उसे बाहर निकाल कर, दोबारा दोबारा उसी प्रकार भरें, जैसे लौहार हवा मारता है। 5. इस तरह शरीर की वायु को बुद्धि से ध्यान से चलाना चाहिये, उसे सूर्य से भरकर जब भी थकावट लगे। 6. वायु को right nostril से भरना चाहिये अपने अंगूठे को दूसरी नासिका के साथ दबा कर ताकि left नासिका बंद हो। फिर पूर भर कर उसे चौथी उंगली (नन्ही उंगली के साथ वाली) से अपनी right नासिका बंद कर कर अन्दर रखना चाहिये। 7. इस प्रकार अच्छे से अन्दर रोक कर, फिर उसे left नासिका से निकालना चाहिये। इस से Vata, पित्त (bile) और बलगम खत्म होते हैं और पाचन शक्ति बढती है। 8. इस से कुण्डली जल्दि ही जाग उठती है, शरीर और नाडियाँ पवित्र होती हैं, आनन्द प्राप्त होता है और भला होता है। इस से बलगम दूर होती है और ब्रह्म नाडी के मुख पर एकत्रित अशुद्धता दूर होती है। 9. इस बस्त्रिका को खूब करना चाहिये क्योंकि इस से तीनो गाँठें खुलती हैं - ब्रह्म गन्ठी (छाती में), विष्णु गन्ठी (गले में) और रुद्र गन्ठी (eyebrows के बीच में)। भ्रमरी 1. वायु को शक्ति भ्रिंगी (wasp) की आवाज करते हुये भर कर, और फिर उसे वही आवाज करते हुये धीरे धीरे निकालें। यह अभ्यास योगिन्द्रों को अद्भुत आनन्द देता है। मूर्छा 1. पूरक (अन्दर साँस लेने) के अन्त में, साँस लेने वाली नाडी को जल्न्धर बन्ध द्वारा अच्छे से बंद करना, और फिर वायु को धीरे धीरे निकालना, इसे मूर्छा कहा जाता है, क्योंकि इस से मन का वेग शान्त होता है और सुख मिलता है। प्लविनी (किशती के समान) 1. चब पेट में हवा भरी जाती है और शरीर में भरपूर पूरी तरह से हवा भर ली जाये, तो गहरे से गहरे पानी में भी शरीर कमल के पत्ते की तरह तैरने लगता है। 2. पूरक (अन्दर लेना), रेचक (बाहर छोडना) और कुम्भक (अन्दर रोकना) - इस तरह से देखा जाये तो प्राणायम तीन भागों में विभक्त है। लेकिन अगर इसे पूरक और रेचन के साथ, और इन के बिना - इस प्रकार देखा जाये तो यह दो ही प्रकार का है - सहित (पूरक और रेचन के साथ) और केवल (केवल कुम्भक)। 3. सहित का अभ्यास तब तक करते रहना चाहिये जब तक केवल प्राप्त न हो जाये। केवल का अर्थ है वायु को अन्दर रखना बिना किसी मुश्किल के, बिना साँस लिये या निकाले। 4. केवल प्राणायम के अभ्यास में, जब उसे ठीक प्रकार से रेचक और पूरक के बिना किया जा सके तो उसे केवल कुम्भक कहते हैं। 5. उस के लिये इस संसार में कुछ भी प्राप्त करना कठिन नहीं है, जो अपनी इच्छा अनुसार वायु को अन्दर रोक कर रख सकता है केवल कुम्भक के माध्यम से। 6. उसे असंशय रूप से राज योग प्राप्त हो जाती है। उस कुम्भक द्वारा कुण्डली जागरित होती है और उसके जागरित होने से सुशुम्न नाडी (बीच की नाडी) अशुद्धता मुक्त हो जाती है। 7. राज योग में हठ योग के बिना कोई सफलता नहीं मिल सकती, और हठ योग में राज योग के बिना कोई सफलता नहीं है। इसलिये, मनुष्य को इन दोनो का ही जम कर अभ्यास करना चाहिये जब तक पूर्ण सिद्धि न प्राप्त हो जाये। 8. कुम्भक के अन्त में मन को आराम देना चाहिये। इस प्रकार अभ्यास करने से मनुष्य राज योग की पद को प्राप्त कर लेता है। हठ योग के पथ में सिद्धि के लक्षण 1. जब शरीर पतला हो जाये, मुख आनन्द से उज्वल हो जाये, अनहत नाद उत्पन्न हो, आँखें साफ हो जायें, शरीर निरोग हो जाये, बिंदु पर काबु हो जाये, भूख बढ जाये - तब योगी को जानना चाहिये की नाडीयाँ स्वच्छ हो गईं हैं और हठ योग में सिद्धि निकट आ रही है। 1. जिस प्रकार भगवान अनन्त नाग पर ही यह संपूर्ण संसार टिका हुआ है, उसी प्रकार सभी तन्त्र (योग क्रियायें) भी कुण्डली पर टिकी हैं। 2. जब गुरु की कृपा से सोती हुई कुण्डली शक्ति जागती है, तब सभी कमल (छे चक्र) और गन्ठियां भिन्न हैं। 3. सुशुम्न नाडी प्राण का मुख्य पथ बनती है, और मन तब सभी संगों और विचारों से मुक्त हो जाता है, तथा मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है। 4. सुशुम्न, शुन्य पदवी, ब्रह्म रन्ध्रा, महापथ, स्मासन, संभवी, मध्य मार्ग - यह सब एक ही वस्तु के नाम हैं। 5. इसलिये, इस कुण्डली देवी को जगाने के लिये, जो ब्रह्म द्वारा पर सो रही है, मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिये। The Mudras 1. दस मुद्रायें हैं जो जरा और मृत्यु का विनाश करती हैं। ये हैं महा मुद्रा, महा बन्ध, महा वेध, केचरी, उद्दियान बन्ध, मूल बन्ध, जल्न्धर बन्ध, विपरीत करनी, विज्रोली, शक्ति चलन। 2. इनका भगवान आदि नाथ (शिवजी) नें वर्णन किया है और इन से आठों प्रकार की दैविक सम्पत्तियाँ प्राप्त होती है। सभी सिद्धगण इन्हें मानते हैं, और ये मारुतों के लिया भी प्राप्त करनी कठिन हैं। 3. इन मुद्राओं को हर ठंग से रहस्य रखना चाहिये, जैसे कोई अपना सोने की तिजोरी रखता है, और कभी भी किसी भी कारण से किसी को नहीं बताना चाहिये जैसे पति और पत्नि आपनी आपस की बातें छुपाते हैं। The Maha Mudra 1. योनि (perineum) को अपने left पैर का एडी से दबाते हुये, और right पैर को आगे फैला कर उसकी उंगलीयों को अपने अंगूठे और पहली उंगली से पकड कर बैठें। 2. साँस अन्दर लेने के बाद जलन्धर बन्ध (Jalandhara Bandha) द्वारा वायु को नीचे की ओर धकेलें। जैसे साँप सोटी की मार से सोटी की तरह सीधा हो जाता है उसी प्रकार शक्ति (कुण्डली) भी इस से सीधी हो जाती है। तब कुण्डली ईद और पिंगल नाडीयों को त्याग कर सुशुमन (मध्य मार्ग) में प्रवेश करती है। 3. फिर वायु को धीरे धीरे धोडना चाहिये, जोर से नहीं। इसी कारण से इसे बुद्धिमान लोगों ने महामुद्रा कहा है। महा मुद्रा का प्रचार महान ऋषियों ने किया है। 4. महान कष्ट जैसे मृत्यु इस से नष्ट होते हैं, और इसी कारण से इसे महा मुद्रा कहा गया है। 5. इसे left nostril से करने के बाद, फिर right नासिका से करना चाहिये और जब दोनो तरफ का अंग बराबर हो तभी इसे बंद करना चाहिये। 6. इसमें सिद्ध होने के बाद कुछ भी खतरनाख या हानिकारक नहीं है क्योंकि इस मुद्रा के अभ्यास से सभी रसों के हानिकारक तत्वों का अन्त हो जाता है। जहरीले से जहरीला जहर भी शहद जैसे असर करता है। 7. भूख न लगना, leprosy, prolapsus anii, colic, and और बदहजमी के रोग,-- यह सब रोग इस महामुद्रा के अभ्यास से दूर हो जाते हैं। 8. यह महा मुद्रा महान सफलता दायक बताई गई है। इसे हर प्रयास से रहस्य ही रखना चाहिये और कभी भी किसी को भी बताना नहीं चाहिये। The Maha Bandha 1. अपनी left ऐडी को अपने नीचे दबा कर (perineum के साथ दबा कर) अपने right foot को अपने left thigh पर रखें। 2. फिर साँस अन्दर ले कर, अपनी ठोडी को अच्छे से छाती पर दबा कर, और इस प्रकार वायु को दबा कर, मन को eyebrows के मध्य में स्थापित करें। 3. इस प्रकार जब तक संभव हो वायु को रोक कर, फिर धीरे धीरे निकालें। इसे left side पर करने के बाद फिर right तरफ करें। 4. कुछ मानते हैं की गले का बंद करना जरूरी नहीं है, क्योंकि जीहवा को अपने ऊपर के दाँतों की जड़ के against अच्छे से दबा कर रखा जाये, तब भी अच्छा बन्ध बनता है। 5. इस बन्ध सो सभी नाडीयों में ऊपर की ओर का प्रवाह रुकता है। यह मुद्रा महान सफलता देने वाली है। 6. यह महा बन्ध मृत्यु को काटने का सबसे होनहार उपकरण है। इस से त्रिवेणी उत्पन्न होती है (conjunction of the Triveni (Ida, Pingala and Susumna)) और मन केदार को जाता है (eyebrows के मध्य का स्थान, भगवान शिव का स्थान)। 7. जैसे सौन्दर्य और सौम्यता एक नारी को बेकार हैं यदि उस का पति न हो, उसी प्रकार महा मुद्रा और महा बन्ध बेकार हैं महा वेध के। The Maha Vedha 1. महा बन्ध में बैठ कर, योगी को वायु भर कर अपने मन को बाँध कर रखना चाहिये। गले को बंद करने द्वारा वायु प्रवाह (प्राण और अपान) को रोकना चाहिये। 2. दोनो हाथों को बराबर धरती पर रख कर, उसे स्वयं को जरा सा उठाना चाहिये और फिर अपने buttocks को धरती पर आयसते से मारना चाहिये। ऐसा करने से वायु दोनो नाडीयों को छोड कर बीच का नाडी में प्रवेश करती है। 3. इस प्रवेश को ईद और पिंगल का मिलन कहते हैं, जिस से अमरता प्राप्त होती है। जब वायु ऐसे हो जाये मानो मर गई है (हलचल हीन हो जाये) तो उसे निकाल देना चाहिये। 4. इस महा वेध का अभ्यास, महान सिद्धियाँ देने वाला है, जरा का अन्त करता है, सफेद बाल, शरीर का काँपना - इन का अन्त करता है। इसलिये, महान योगी जन इसका सेवन करते हैं। 5. यह तीनों (मुद्रायें) ही महान रहस्य हैं। यह जरा और मृत्यु के नाशक हैं, भूख बढाते हैं, और दैविक शक्तियां प्रदान करते हैं। 6. इन्हें आठों प्रकार से अभ्यास करना चाहिये - हर रोज। इन से पुण्य कोश बढता है और पाप कम होते हैं। मनुष्य को, अच्छे से सीख कर धीरे धीरे इन्का अभ्यास बढाना चाहिये।
Comments

Nandlal V.

is knowledge ke aap ko bahut bahut dhanyabad

5/18/2014 10:33:01 PM

Anil Vishwakarma

Took me to lot time for read, but very informative.

3/3/2014 6:57:59 AM

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