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देखती हूँ हर रोज़, आईने में अपने आप को
खुश होती हूँ देखकर बाहरी रूप
इतने अरसो बाद भी
वैसा ही है, मुस्कुराता, महकता
तसल्ली सी होती है, पर अधूरी सी...
पूछ लेती हूँ आईने से एक प्रश्न
क्या कभी दिखा पाएगा मुझे मेरा अंतर मन?
मेरी भावनाओ का उतार चढ़ाव, समझाएगा मुझे
जवाब में आईने पर, बस एक स्मीत की रेशा
शायद अनकहे ही जान जाती हूँ उसकी भाषा
मेरी भावनाओ पर मुझे ही है चलना
गिरते, उठते मुझे ही संभालना
छोटिसी ज़िंदगी है, करूँगी सुहाना अपना सफ़र
हर बात का नही करूँगी रक्स
अंतरमन जब भरा होगा शांति और सयम से
तब आईना भी दिखाएगा, मेरा छूपा, हुआ अक्स
Manoj Vishwakarma
Keep writing good lines
11/23/2013 9:44:36 PM
TANNU SHARMA
very nice dear nandal.
11/20/2013 12:08:58 AM
Nandlal V.
Thanks to all
1/11/2014 4:39:19 AM