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क्या वो बचपन के दिन थे
जब हम अपने घर के बहार खेला करते थे...
और शाम होते ही अडोस पड़ोस
की औरतें एक दुसरे के घर से
आग मांग कर अपने घर की
चूल्हा जलाया करती थी...
मिटटी का चूल्हा में गोबर की
उपली और लकड़ी जला करती थी...
क्या बताऊँ वही राख,
खाद का काम किया करती थी...
वो स्वाद वो देशी अंदाज
अब हमेशा ही याद आता है...
इस भाग दौड़ की शहरी जिंदगी में
लिट्टी चोखा भी हमको तरसता है...
http://shyamvishwakarma.blogspot.in/2012/11/blog-post_3.html
Omesha Arts
सही कहा रविजी आपने
3/23/2013 10:28:58 PM
Ravikumar Vishwakarma
Wo din hi kuchh aur the, jo kabhi wapas nahi ayenge...
3/23/2013 10:04:36 PM
Anil Vishwakarma
Truly, bachpan ki yaad tazaa ho gayee :)
3/23/2013 6:31:00 AM
Anil Vishwakarma
Bachpan ki yaad tazaa ho gayee.
2/21/2013 3:10:46 AM
Manoj Vishwakarma
Good one ...
2/20/2013 10:11:53 PM
Mohan Vishwakarma
Nice poem ...
2/20/2013 9:56:10 PM
Shyam Vishwakarma
समय निकाल कर हमारी पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप सभी का धन्यवाद.........
3/23/2013 11:42:08 PM