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तुलसी अपने राम को, भजन करौ निरसंक । आदि अन्त निरबाहिवो जैसे नौ को अंक ।।
आवत ही हर्षे नही नैनन नही सनेह । तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह ।।
तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहु ओर । बसीकरण एक मंत्र है परिहरु बचन कठोर ।।
बिना तेज के पुरूष अवशी अवज्ञा होय । आगि बुझे ज्यों रख की आप छुवे सब कोय ।।
तुलसी साथी विपत्ति के विद्या, विनय, विवेक । साहस सुकृति सुसत्याव्रत राम भरोसे एक ।।
काम क्रोध मद लोभ की जो लौ मन मैं खान । तौ लौ पंडित मूरखों तुलसी एक समान ।।
राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरी द्वार । तुलसी भीतर बहारों जौ चाह्सी उजियार ।।
नाम राम को अंक है, सब साधन है सून । अंक गए कछु हाथ नही, अंक रहे दस गून ।।
प्रभु तरु पर, कपि डार पर ते, आपु समान । तुलसी कहूँ न राम से, साहिब सील निदान ।।
हरे चरहिं, तापाहं बरे, फरें पसारही हाथ । तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ ।।
तुलसी हरि अपमान तें होई अकाज समाज । राज करत रज मिली गए सकल सकुल कुरुराज ।।
राम दूरि माया बढ़ती, घटती जानि मन मांह । भूरी होती रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छांह ।।
राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि । राग न रोष न दोष दुःख सुलभ पदारथ चारी ।।
चित्रकूट के घाट पर भई संतान की भीर । तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करे रघुबीर ।।
तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए । अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए ।।
नीच निचाई नही तजई, सज्जनहू के संग । तुलसी चंदन बिटप बसि, बिनु बिष भय न भुजंग ।।
ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर कहहीं न दूसरी बात । कौड़ी लागी लोभ बस करहिं बिप्र गुर बात ।।
फोरहीं सिल लोढा, सदन लागें अदुक पहार । कायर, क्रूर, कपूत, कलि घर घर सहस अहार ।।
तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन । अब तो दादुर बोलिहं हमें पूछिह कौन ।।
मनि मानेक महेंगे किए सहेंगे तृण, जल, नाज । तुलसी एते जानिए राम गरीब नेवाज ।।
होई भले के अनभलो, होई दानी के सूम । होई कपूत सपूत के ज्यों पावक मैं धूम ।।