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वेदों में मूलतः ब्राहमण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र पुरुष या स्त्री के लिए कहीं कोई बैरभाव या भेदभाव का स्थान नहीं है ।
जाति (Caste) की अवधारणा यदि देखा जाए तो काफ़ी नई है । जाति के पर्याय के रूप में स्वीकार किया जा सके या अपनाया जा सके ऐसा एक भी शब्द वेदों में नहीं है । जाति के नाम पर साधारणतया स्वीकृत दो शब्द हैं - जाति और वर्ण । किन्तु सच यह है कि तीनों ही पूर्णतया भिन्न अर्थ रखते हैं ।
जाति की अवधारणा यूरोपियन दिमाग की उपज है जिसका तनिक अंश भी वैदिक संस्कृति में नहीं मिलता ।
जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण । न्याय सूत्र यही कहता है "समानप्रसवात्मिका जाति" - अथवा जिनके जन्म का मूल स्त्रोत सामान हो (उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो) वह एक जाति बनाते हैं । ऋषियों द्वारा प्राथमिक तौर पर जन्म-जातियों को चार स्थूल विभागों में बांटा गया है – उद्भिज(धरती में से उगने वाले जैसे पेड़, पौधे,लता आदि), अंडज(अंडे से निकलने वाले जैसे पक्षी, सरीसृप आदि), पिंडज (स्तनधारी - मनुष्य और पशु आदि), उष्मज (तापमान तथा परिवेशीय स्थितियों की अनुकूलता के योग से उत्त्पन्न होने वाले – जैसे सूक्ष्म जिवाणू वायरस, बैक्टेरिया आदि)।
हर जाति विशेष के प्राणियों में शारीरिक अंगों की समानता पाई जाती है । एक जन्म-जाति दूसरी जाति में कभी भी परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न जातियां आपस में संतान उत्त्पन्न कर सकती हैं । अतः जाति ईश्वर निर्मित है ।
जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं । इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट (इन्द्रियादी) का भेद है और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है ।
बहुत समय बाद जाति शब्द का प्रयोग किसी भी प्रकार के वर्गीकरण के लिए प्रयुक्त होने लगा । और इसीलिए हम सामान्यतया विभिन्न समुदायों को ही अलग जाति कहने लगे । जबकि यह मात्र व्यवहार में सहूलियत के लिए हो सकता है । सनातन सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं ।
वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया सही शब्द – वर्ण है – जाति नहीं । सिर्फ यह चारों ही नहीं बल्कि आर्य और दस्यु भी वर्ण कहे गए हैं । वर्ण का मतलब है जिसे वरण किया जाए (चुना जाए) । अतः जाति ईश्वर प्रदत्त है जबकि वर्ण अपनी रूचि से अपनाया जाता है । जिन्होंने आर्यत्व को अपनाया वे आर्य वर्ण कहलाए और जिन लोगों ने दस्यु कर्म को स्वीकारा वे दस्यु वर्ण कहलाए | इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण कहे जाते हैं | इसी कारण वैदिक धर्म "वर्णाश्रम धर्म" कहलाता है । वर्ण शब्द का तात्पर्य ही यह है कि वह चयन की पूर्ण स्वतंत्रता व गुणवत्ता पर आधारित है ।
३. बौद्धिक कार्यों में संलग्न व्यक्तियों ने ब्राहमण वर्ण को अपनाया है । समाज में रक्षा कार्य व युद्धशास्त्र में रूचि योग्यता रखने वाले क्षत्रिय वर्ण के हैं । व्यापार-वाणिज्य और पशु-पालन आदि का कार्य करने वाले वैश्य तथा जिन्होंने इतर सहयोगात्मक कार्यों का चयन किया है वे शूद्र वर्ण कहलाते हैं । ये मात्र आजीविका के लिए अपनाये जाने वाले व्यवसायों को दर्शाते हैं, इनका जाति या जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है ।
४. वर्णों को जन्म आधारित बताने के लिए ब्राह्मण का जन्म ईश्वर के मुख से हुआ, क्षत्रिय ईश्वर की भुजाओं से जन्में, वैश्य जंघा से तथा शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए यह सिद्ध करने के लिए पुरुष सूक्त के मंत्र प्रस्तुत किये जाते हैं । इस से बड़ा छल नहीं हो सकता, क्योंकि -
(a) वेद ईश्वर को निराकार और अपरिवर्तनीय वर्णित करते हैं । जब परमात्मा निराकार है तो इतने महाकाय व्यक्ति का आकार कैसे ले सकता है ? (देखें यजुर्वेद ४०.८)
(b) यदि इसे सच मान भी लें तो इससे वेदों के कर्म सिद्धांत की अवमानना होती है । जिसके अनुसार शूद्र परिवार का व्यक्ति भी अपने कर्मों से अगला जन्म किसी राजपरिवार में पा सकता है । परन्तु यदि शूद्रों को पैरों से जन्मा माना जाए तो वही शूद्र पुनः ईश्वर के हाथों से कैसे उत्त्पन्न होगा?
(c) आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता । यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर मिलता है । तो क्या वर्ण ईश्वर के शरीर के किसी हिस्से से आता है? आत्मा कभी ईश्वर के शरीर से जन्म तो लेता नहीं तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि आत्मा का शरीर ईश्वर के शरीर के हिस्सों से बनाया गया? किन्तु वेदों की साक्षी से प्रकृति भी शाश्वत है और कुछ अणु पुनः विभिन्न मानव शरीरों में प्रवाहित होते हैं । अतः यदि परमात्मा सशरीर मान ही लें तो भी यह असंभव है किसी भी व्यक्ति के लिए की वह परमात्मा के शरीर से जन्म ले ।
(d) जिस पुरुष सूक्त का हवाला दिया जाता है वह यजुर्वेद के ३१ वें अध्याय में है साथ ही कुछ भेद से ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी उपस्थित है । यजुर्वेद में यह ३१ वें अध्याय का ११ वां मंत्र है । इसका वास्तविक अर्थ जानने के लिए इससे पहले मंत्र ३१.१० पर गौर करना जरूरी है । वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं ।
यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से "जन्म लेता" है - मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है । क्योंकि अगर मंत्र में "जन्म लेता" यह भाव अभिप्रेत होता तो "मुख कौन है?" इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी ।
उदाहरणतः यह पूछा जाए, "दशरथ कौन हैं?" और जवाब मिले "राम ने दशरथ से जन्म लिया", तो यह निरर्थक जवाब है ।
इसका सत्य अर्थ है – समाज में ब्राह्मण या बुद्धिजीवी लोग समाज का मस्तिष्क, सिर या मुख बनाते हैं जो सोचने का और बोलने का काम करे । बाहुओं के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय हैं, वैश्य या उत्पादक और व्यापारीगण जंघा के सामान हैं जो समाज में सहयोग और पोषण प्रदान करते हैं (ध्यान दें ऊरू अस्थि या फिमर हड्डी शरीर में रक्तकोशिकाओं का निर्माण करती हैं और सबसे सुदृढ़ हड्डी होती है ) । अथर्ववेद में ऊरू या जंघा के स्थान पर 'मध्य' शब्द का प्रयोग हुआ है । जो शरीर के मध्य भाग और उदर का द्योतक है । जिस तरह पैर शरीर के आधार हैं जिन पर शरीर टिक सके और दौड़ सके उसी तरह शूद्र या श्रमिक बल समाज को आधार देकर गति प्रदान करते हैं ।
इससे अगले मंत्र इस शरीर के अन्य भागों जैसे मन, आंखें इत्यादि का वर्णन करते हैं । पुरुष सूक्त में मानव समाज की उत्पत्ति और संतुलित समाज के लिए आवश्यक मूल तत्वों का वर्णन है ।
यह अत्यंत खेदजनक है कि सामाजिक रचना के इतने अप्रतिम अलंकारिक वर्णन का गलत अर्थ लगाकर वैदिक परिपाटी से सर्वथा विरुद्ध विकृत स्वरुप में प्रस्तुत किया गया है ।
ब्राह्मण ग्रंथ, मनुस्मृति, महाभारत, रामायण और भागवत में भी कहीं परमात्मा ने ब्राह्मणों को अपने मुख से मांस नोंचकर पैदा किया और क्षत्रियों को हाथ के मांस से इत्यादि ऊलजूलूल कल्पना नहीं पाई जाती है ।
५. जैसा कि आधुनिक युग में विद्वान और विशेषज्ञ सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक होने के कारण हम से सम्मान पाते हैं इसीलिए यह सीधी सी बात है कि क्यों ब्राह्मणों को वेदों में उच्च सम्मान दिया गया है । अपने पूर्व लेखों में हम देख चुके हैं कि वेदों में श्रम का भी समान रूप से महत्वपूर्ण स्थान है । अतः किसी प्रकार के (वर्ण व्यवस्था में) भेदभाव के तत्वों की गुंजाइश नहीं है ।
६. वैदिक संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति जन्मतः शूद्र ही माना जाता है । उसके द्वारा प्राप्त शिक्षा के आधार पर ही ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण निर्धारित किया जाता है । शिक्षा पूर्ण करके योग्य बनने को दूसरा जन्म माना जाता है । ये तीनों वर्ण 'द्विज' कहलाते हैं क्योंकि इनका दूसरा जन्म (विद्या जन्म) होता है । किसी भी कारणवश अशिक्षित रहे मनुष्य शूद्र ही रहते हुए अन्य वर्णों के सहयोगात्मक कार्यों को अपनाकर समाज का हिस्सा बने रहते हैं ।
७. यदि ब्राह्मण का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है । इसी तरह शूद्र या दस्यु का पुत्र भी विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है । यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से गुणवत्ता पर आधारित है । जिस प्रकार शिक्षा पूरी करने के बाद आज उपाधियाँ दी जाती हैं उसी प्रकार वैदिक व्यवस्था में यज्ञोपवीत दिया जाता था । प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यकर्म का पालन व निर्वहन न करने पर यज्ञोपवीत वापस लेने का भी प्रावधान था ।
८. वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जैसे -
(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे । परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की । ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है ।
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे । जुआरी और हीन चरित्र भी थे । परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किय । ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया । (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) ।
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए ।
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । (विष्णु पुराण ४.१.१४) । अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए । पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया । (विष्णु पुराण ४.१.१३) । धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया । (विष्णु पुराण ४.२.२) ।
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए । (विष्णु पुराण ४.२.२) ।
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए ।
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने ।
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए । (विष्णु पुराण ४.३.५) ।
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया । (विष्णु पुराण ४.८.१) । वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए । इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं ।
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने ।
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना ।
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ ।
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे ।
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया । विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया ।
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया ।
९. वेदों में 'शूद्र' शब्द लगभग बीस बार आया है । कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है । और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने, उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है ।
१०. वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है ("तपसे शूद्रम" - यजु .३०.५), और इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को सम्पूर्ण मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है ।
११. चार वर्णों से अभिप्राय यही है कि मनुष्य द्वारा चार प्रकार के कर्मों को रूचि पूर्वक अपनाया जाना । वेदों के अनुसार एक ही व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति चारों वर्णों से युक्त है । तथापि हमने अपनी सुविधा के लिए मनुष्य के प्रधान व्यवसाय को वर्ण शब्द से सूचित किया है ।
अतः वैदिक ज्ञान के अनुसार सभी मनुष्यों को चारों वर्णों के गुणों को धारण करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए । यही पुरुष सूक्त का मूल तत्व है । वेद के वशिष्ठ, विश्वामित्र, अंगीरा, गौतम, वामदेव और कण्व आदि ऋषि चारों वर्णों के गुणों को प्रदर्शित करते हैं । यह सभी ऋषि वेद मंत्रों के द्रष्टा थे (वेद मंत्रों के अर्थ का प्रकाश किया) दस्युओं के संहारक थे । इन्होंने शारीरिक श्रम भी किया तथा हम इन्हें समाज के हितार्थ अर्थ व्यवस्था का प्रबंधन करते हुए भी पाते हैं । हमें भी इनका अनुकरण करना चाहिए ।
सार रूप में, वैदिक समाज मानव मात्र को एक ही जाति, एक ही नस्ल मानता है । वैदिक समाज में श्रम का गौरव पूर्ण स्थान है और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि से वर्ण चुनने का समान अवसर पाता है । किसी भी किस्म के जन्म आधारित भेद मूलक तत्व वेदों में नहीं मिलते ।
अतः हम भी समाज में व्याप्त जन्म आधारित भेदभाव को ठुकरा कर, एक दूसरे को भाई-बहन के रूप में स्वीकारें और अखंड समाज की रचना करें ।
हमें गुमराह करने के लिए वेदों में जातिवाद के आधारहीन दावे करनेवालों की मंशा को हम सफल न होने दें और समाज के अपराधी बनाम दस्यु\दास\राक्षसों का भी सफ़ाया कर दें ।
हम सभी वेदों की छत्र-छाया में एक परिवार की तरह आएं और मानवता को बल प्रदान करें ।
Anil Vishwakarma
जैसा की पुनम जी ने कहा, ये समाज की धरोहर है, तो ये समाज के उपर ही निर्भर है कि ये समाज से कब जायेगा.
12/11/2011 9:13:27 AM
Manoj Vishwakarma
जाति के भेद-भाव समाज से जितना जल्दी चला जाये, उतना ही समाज के लिए अच्छा है.
11/13/2011 4:12:08 AM
Ravikumar Vishwakarma
सही कहा पूनम जी अपने! समय लगेगा, पर कितना किसी को नहीं पता।
11/12/2011 11:43:18 PM
Poonam Vishwakarma
वर्ण व्यवस्था तो काफी समय से चला आ रहा है, चुंकि ये समाज की धरोहर है तो इसे जाने के काफी समय लगेगा.
11/12/2011 10:11:39 PM
Shyam Vishwakarma
अच्छी जानकारी देने के लिए कृष्ण प्रशाद जी आप का धन्यवाद...........
1/21/2012 6:09:56 AM